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Wednesday 22 September 2010

Munni Badnaam Hoi Darling Tere Lye (DABANGG) Full (HD) Video Song

Sonakshi Sinha's favourite song from Dabangg is Tere Mast Mast Do Nain

'Dabangg' Song Shot In Dubai Metro

किराये की कोख

किराये की कोख या अंग्रेजी में सरोगेसी क्रिया में बांझ महिला का अंडाणु लेने के बाद उसके ही पति के शुक्राणु से आई.वी.एफ. विधि द्वारा फर्टिलाइजेशन करते हैं। इसके बाद तैयार भ्रूण को एक दूसरी स्वस्थ गर्भाशय वाली महिला की बच्चेदानी में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। ऐसी महिला को किराए की कोख वाली मां या सरोगेट मदर कहते है। सरोगेट मदर के गर्भ में पलने वाला बच्चा अनुवांशिक दृष्टि से (जेनेटिकली) अपने मां-बाप का ही होता है, केवल उसे जन्म देने वाली महिला दूसरी होती है।

कब जरूरत है

द्य सरोगेसी की प्रक्रिया ऐसी महिलाओं के लिये उपयोगी है, जिनकी बच्चेदानी में टी.बी. का संक्रमण काफी तीव्र हो।

द्य जिस महिला का किन्हीं कारणों से बार-बार गर्भपात होता है या बच्चेदानी में कोई पैदाइशी कमी होती है।

द्य बार-बार असफल टेस्ट-ट्यूब बेबी क्रिया या किसी बीमारी की वजह से ऑपरेशन कर बच्चेदानी निकाली जा चुकी हो।

द्य जिन महिलाओं में अंडाणुओं के प्रजनन की शक्ति खत्म हो चुकी है, वे सरोगेट महिला से अंडाणु डोनेट कराने के बाद अपने ही पति के शुक्राणु द्वारा सरोगेसी विधि से मां बन सकती हैं।

इन बातों पर दें ध्यान

सरोगेट मदर बांझ महिला की रिश्तेदार भी हो सकती है या फिर वह दंपति की जानकार या अजनबी भी हो सकती है। अगर पति को शुक्राणु नहीं बनता है, तो इस क्रिया में डोनर से शुक्राणु लेते हुए सरोगेसी क्रिया करते है। ऐसी स्थिति में खर्चा कम आता है।

ऐसी हो सरोगेट मदर

द्य सरोगेट महिला की उम्र 22 से 40 वर्ष के मध्य होनी चाहिए। उसका स्वास्थ्य अच्छा हो और वह किसी नशीले पदार्थ का सेवन न करती हो।

द्य सरोगेट क्रिया से पहले कुछ कानूनी बातें भी ध्यान देने योग्य होती है। जैसे डोनर और दंपति की पहचान को आपस में गोपनीय रखा जाता है।

द्य अगर अंडाणु देने वाली स्त्री सरोगेट मदर बनती है, तो इस स्थिति में पहचान को गुप्त नहीं रखा जाता है।

द्य डॉक्टर द्वारा संबंधित दंपति को सारे खर्चो की जानकारी देनी चाहिए।

द्य सरोगेट मदर व दंपति दोनों को सरोगेसी क्रिया से संबंधित नियमों व कानूनों को समझते हुए दोनों पक्षों से एक कानूनी पेपर साइन कराना चाहिए।

सरोगेट मदर्स क्या सचमुच एक 'अवन' की तरह हैं??

एक विषय कुछ ऐसा है, जिसपर मैं अपना मत नहीं बना पायी हूँ, कि यह सही है या नहीं और इसे बढ़ावा देना चाहिए या नहीं .और वो है सरोगेट मदर्स का. भारत, दुनिया भर के माता-पिताओं के चेहरे पर मुस्कान लाने में सक्षम हुआ है.दुनिया भर से लोग यहाँ आते हैं.पैसे के बल पर एक कोख किराए पर लेते हैं और गुलगोथाने से बच्चे को गोद में लिए वापस अपने देश चले जाते हैं.

भारत के लिए बच्चे के जन्म लेने की ये प्रक्रिया कोई नई नहीं है. प्राचीन धर्मग्रंथों में भी इसका जिक्र है. और Gestational surrogacy का सबसे अच्छा उदहारण है भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म. राजा कंस के डर से देवकी के गर्भ से उनका प्रतिरोपण रोहिणी देवी के गर्भ में कर दिया गया. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो sperm donor हुए वासुदेव,egg donor देवकी और उन्हें जन्म दिया रोहिणी देवी ने. बाइबल में भी इसका जिक्र है और चैप्टर १६ में अब्राहम और सारा का उल्लेख है कि 'सारा' बंध्या थीं और उन्होंने अपनी दासी 'हैगर' से आग्रह किया था कि वो उनके और अब्राहम के बच्चे को जन्म दे.

Surrogacy दो तरह की होती है Traditional surrogacy और Gestational surrogacy .Traditional surrogacy में sperm पिता के ही होते हैं पर egg किसी दूसरी महिला का और इसे ट्यूब में fertilize कर और इसे जन्म देने वाली माँ के गर्भ में प्रतिरोपित कर दिया जाता है. Gestational surrogacy में पिता के sperm और माँ के egg को fertilize कर किसी अन्य महिला (सरोगेट मदर) के गर्भ में प्रतिरोपित कर दिया जाता है.

आधुनिक युग में अमेरिका में १९७८ में IVF पद्धति से पहले टेस्ट ट्यूब बेबी लुइ ब्राउन का जन्म हुआ और कुछ ही महीनो बाद ३ अक्टूबर १९७८ को कलकत्ता में भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ,जिसका नाम रखा गया 'दुर्गा' .पर जिस घटना ने अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में स्थान बनाया वह थी.२००४ में ,गुजरात के 'आनंद' नमक एक छोटे से शहर की एक महिला का लन्दन में रहने वाली अपनी बेटी के बच्चे को जन्म देना.

डॉक्टर का कहना है, हर वर्ष विश्व भर में करीब ५०० बच्चे ,सरोगेसी की प्रक्रिया से जन्म लेते हैं.उनमे करीब २०० बच्चे भारत में जन्म लेते हैं.जाहिर है,भारत की गरीबी और इसी सहारे अपना जीवन सुधारने की आकांक्षा लोगों को इसके लिए प्रेरित करती है. हर IVF क्लिनिक एक सरोगेसी एजेंसी से जुड़ी होती है. इसके एजेंट ,झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाली गरीब महिलाओं से संपर्क करते हैं और अपने जीवन स्तर सुधारने ,अपने बच्चों का भविष्य बनाने का एक अवसर मिलता देख,ये लोग एक अच्छी रकम ले बच्चे को जन्म देने को तैयार हो जाती हैं. क्लिनिक वाले इन महिलाओं का पूरा ख्याल रखते हैं पर पति की रजामंदी जरूरी होती है.उन्हें भी बुलाकर काउंसिलिंग की जाती है. फिर भी उन्हें परिवार के अन्य सदस्यों की नाराजगी और पड़ोसियों की तानाकशी तो सुननी ही पड़ती है. लेकिन जब वे उन्हें एक साल के बाद अपनी झोपड़ी छोड़, अपने फ़्लैट में शिफ्ट होते और जीवन स्तर में सुधार देखते हैं तो कई अन्य महिलायें भी यह राह अपना लेती हैं.

भारत की तरफ आकृष्ट होने की कुछ वजहें और हैं. इस प्रक्रिया का कम खर्चीला होना. यहाँ एक बच्चे के जन्म में १० लाख से २५ लाख तक का खर्च आता है जबकि अमेरिका में यही खर्च बढ़कर ५५ लाख का हो जाता है. वैसे जन्म देने वाली माँ के हिस्से २,३ लाख रुपये ही आते हैं. ५०,००० एजेंट ले लेते हैं और बाकी पैसे प्रतिरोपण,दवाइयां और माँ की देखभाल में खर्च होते हैं.भारत में कानून भी उनके पक्ष में है वह सरोगेट माँ को नहीं बल्कि donors को ही बच्चे का कानूनी संरक्षक मानता है. इंगलैंड और ऑस्ट्रेलिया में जन्म देने वाली माँ को ही यह अधिकार प्राप्त है.फिर भारत में लोग बच्चे को सौंपने से इनकार नहीं करते.जबकि कई बार विदेशों में माँ ने बाद में इनकार कर दिया है,बच्चे को सौंपने से.

शिकागो के बेनहूर सैमसन ने २००६ में सरोगेसी कंसल्टेंसी शुरू की ,वे अमेरिका,इंग्लैण्ड ,कनाडा से इच्छुक दंपत्ति को भारत लाते हैं.उनका कहना है ४ साल में उनका बिजनेस ४०० गुणा बढ़ गया है.

यहाँ, बिलकुल गहरे श्याम वर्ण की लडकियां, विदेशी नाक नक्श के सफ़ेद गुलाबी बच्चों को जन्म देती हैं. डॉक्टर यशोधरा म्हात्रे का कहना है, 'गर्भ एक अवन की तरह है ,इसमें काला चॉकलेट केक बेक करना है या सफ़ेद वनिला केक यह आपकी मर्ज़ी पर है". पर यह सुन.मन थोड़ा सशंकित हो जाता है. बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया क्या इतनी मेकैनिकल हो सकती है.? अजन्मे बच्चे से भी माँ का एक जुड़ाव होता है.पर यहाँ अगर भावनाएं जुड़ी रहेंगी तो फिर माँ बच्चे से अलग कैसे हो पायेगी?




एक विचार यह भी सर उठाता है कि अपने बच्चे के इच्छुक माता-पिता के लिए इस से बड़े पुण्य का काम और क्या हो सकता है कि आप उनका ही अंश उनके गोद में सौंप सकें. चाहे हम एडॉप्शन की कितनी भी वकालत करें.पर इस से इनकार नहीं कर सकते कि हर स्त्री-पुरुष में अपने बच्चे को गोद में खिलाने की आकांक्षा होती है. कितने ही निःसंतान दंपत्ति की ज़द्दोज़हद देखी है.बरसों इलाज. स्त्रियों का अनेकों शारीरिक कष्ट से गुजरना और अगर विज्ञान उन्हें यह सुविधा मुहैया करवा रहा है. और इसी बहाने वह किसी के जीवन में सुधार लाने में भी सक्षम होते हैं तो क्या गलत है इसमें? पर भविष्य की एक भयावह तस्वीर भी खींच जाती है कि यह चलन आम ना हो जाए.और कहीं इसका दुरुपयोग ना शुरू हो जाए.आज मजबूरी में वे यह प्रक्रिया अपना रहें हैं,भविष्य में यह शौक ना बन जाए.